रहे न कोई भूखा–नंगा / कोदूराम दलित
पराधीन रहकर सरकस का शेर नित्य खाता है कोड़े,
पराधीन रहकर बेचारे बोझा ढोते हाथी-घोड़े ।
माता–पिता छुड़ा, पिंजरे में रखा गया नन्हा–सा तोता,
वह स्वतंत्र उड़ते तोतों को देख सदा मन ही मन रोता ।
चाहे पशु हो, चाहे पंछी परवशता कब, किसको भायी,
कहने का मतलब यह कि ‘परवशता’ होती दुखदायी ।
ऐसी दुखदायी परवशता मानव को कैसे भायेगी ?
औरों की दासता किसी को राहत कैसे पहुँचायेगी ?
जो गुलाम हैं, उन लोगों से उनके दुख: की बातें पूछो,
औ’ हैं जो आज़ाद मुल्क़ के उनके सुख की बातें पूछो ।
कहा सयानों ने सच ही है आज़ादी से जीना अच्छा,
किंतु ग़ुलामी में जिंदा रहने से मर जाना है अच्छा ।
रह करके गोरों की परवशता में हम क्या-क्या न खो चुके,
पर पंद्रह अगस्त सन सैंतालीस को हम आज़ाद हो चुके ।
यह सब अपने अमर शहीदों के भारी जप-तप का फल है,
मिलकर रहें, देश पनपावें तब तो फिर भविष्य उज्जवल है ।
आज़ादी पर आँच न आवे लहर-लहर लहराए तिरंगा,
हम संकल्प आज लेवें कि रहे न कोई भूखा–नंगा ।