भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद 31 से 40 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:29, 17 जून 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पद संख्या 31 तथा 32

(31)
जय ताकिहै तमकि ताकी ओर को।
जाको है सब भांति भरोसो कपि केसरी-किसोरको।।

जन-रंजन अरिगन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको।
बेद- पुरान-प्रगट पुरूषाराि सकल-सुभट -सिरमोर केा।।

उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बिबुधबृंद बँदिछोर को।
जलधि लाँधि दहि लंे प्रबल बल दलन निसाचर घोर को।।

जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिाकर भोरको।
जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको।।

लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको।
सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोर को।।

भगत-कामतरू नाम राम परिपूरन चंद चकोरको।
तुलसी फल चारों करतल जस गावत गईबहोरको।।

(32)
ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हठीले।
साहेब कहूँ न रामसे, तोसे न उसीले।।

तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले।
जानक हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले।।

हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले।
सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले।।

सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले।
अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले।।

साँसति तुलसिदासकी सुनि सुजस तुही ले।
तिहूँकाल तिनको भलौ जे राम-रँगीले।।