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अपन जान मैं बहुत करी / सूरदास

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कवि: सूरदास


राग धनाश्री


अपन जान मैं बहुत करी।

कौन भांति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी, समुझी न परी॥

दूरि गयौ दरसन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी।

मनसा बाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी॥

गुन बिनु गुनी, सुरूप रूप बिनु नाम बिना श्री स्याम हरी।

कृपासिंधु अपराध अपरिमित, छमौ सूर तैं सब बिगरी॥


भावार्थ :- जीव मानता है कि अपनी शक्ति पर प्रभु प्राप्ति की उसने अनेक साधनाएं की, पर अन्त में यह उसकी भ्रांत धारणा ही निकली। प्रभु तो सर्वत्र व्यापक है पर यह कहां- कहां उसके दर्शन को भटकता फिरा। समझ में न आया कि वह निर्गुण होते हुए भी सगुण है, निराकार होते हुए भी साकार है। अज्ञान में तो अपराध हुए ही ज्ञानाभिमान के द्वारा भी कम अपराध नहीं हुए। सो अब तो बिगड़ी हुई बात क्षमा मांगने से ही बनेगी।


शब्दार्थ :- ताईं =लिए। प्रभुता = ईश्वरता। मनसा = मनसे। वाचा =वाणी से। अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे। धरी =धारणा की। छमौ = क्षमा करो।