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रात का अन्धेरा / संज्ञा सिंह
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रात का अन्धेरा
सन्नाटा उगलता हुआ
हिला देता है मुझको
घड़ी की खटकती सुई
घरघराती साँस किसी की
सुनती हूँ चुपचाप
कब और न जाने कैसे
नींद आ गई
रजाई में घुसकर
सपने देखती
उबलते- ऊँघते और ख़ुश होते
सुबह हुई
अन्धेरे के बाद