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जापर दीनानाथ ढरै / सूरदास

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राग सारंग


जापर दीनानाथ ढरै।

सोई कुलीन, बड़ो सुन्दर सिइ, जिहिं पर कृपा करै॥

राजा कौन बड़ो रावन तें, गर्वहिं गर्व गरै।

कौन विभीषन रंक निसाचर, हरि हंसि छत्र धरै॥

रंकव कौन सुदामाहू तें, आपु समान करै।

अधम कौन है अजामील तें, जम तहं जात डरै॥

कौन बिरक्त अधिक नारद तें, निसि दिन भ्रमत फिरै।

अधिक कुरूप कौन कुबिजा तें, हरि पति पाइ तरै॥

अधिक सुरूप कौन सीता तें, जनम वियोग भरै।

जोगी कौन बड़ो संकर तें, ताकों काम छरै॥

यह गति मति जानै नहिं कोऊ, किहिं रस रसिक ढरै।

सूरदास, भगवन्त भजन बिनु, फिरि-फिरि जठर जरै॥


भावार्थ :- भगवान् की लीला के अन्दर क्या-क्या रहस्य भरे पड़े हैं, कोई समझ नहीं सकता। कोई एक सिद्धान्त देखने में नहीं आता। बड़े बड़े उच्चकुलीनों का पतन हो गया और नीच कहे जानेवाले पार हो गये। विभीषन को लंका का राज्य दे दिया, और रावण का गर्व धूल में मिला दिया। भिखारी सुदामा को द्वारकाधीश कृष्ण ने अपनी बराबरी का बना लिया योगिराज नारद दर-दर घूमते फिरे। कुरूपा कुब्जा कृष्णको पसन्द आ गई, जबकि सीता को जीवनभर वियोग भोगना पड़ा। शंकर जैसे महान् योगी को कामदेव ने छलना चाहा। ये सब विपरीत बातें हुईं। भगवान् के प्रसन्न होने का कहां सिद्धान्त स्थिर किया जाय ?


शब्दार्थ :- ढरे =प्रसन्न हो जाय। गर्व हि गर्व गरै = अहंकार ही अहंकार में गल कर नष्ट हो जाता है। छत्र = राजछत्र। छरे = छलता है। किहिं रस रसिक ढरै= किस साधन से भगवान् रीझ जाते हैं। जठर जरै = गर्भवास का दुःख भोगता रहेगा।