धोखैं ही धोखैं डहकायौ / सूरदास
राग कल्याण
धोखैं ही धोखैं डहकायौ। समुझी न परी विषय रस गीध्यौ, हरि हीरा घर मांझ गंवायौं॥ क्यौं कुरंग जल देखि अवनि कौ, प्यास न गई, दसौं दिसि धायौ। जनम-जनम बहु करम किये हैं, तिन में आपुन आपु बंधायौ॥ ज्यौं सुक सैमर -फल आसा लगि निसिबासर हठि चित्त लगायौ। रीतो पर्यौ जबै फल चाख्यौ, उड़ि गयो तूल, तांबरो आयौ॥ ज्यौं कपि डोरि बांधि बाजीगर कन-कन कों चौहटें नचायौ। सूरदास, भगवंत भजन बिनु काल ब्याल पै आपु खवायौ॥
भावार्थ :- क्षणिक विषय-रसों में आनंद मानकर यह जीव आत्मानन्द से विमुख रह गया। धोखे में ठगाया गया। `हरि-हीरा' को अंतर में खोकर जीवनभर विषय-रस में भूला रहा। कालरूपी सर्प खा गया। `ज्यों सुक...आयौ.' तोता सेमर के फल में रात-दिन आशा लगाये बैठा रहा, कि कब पकता है। अंत में पका जानकर चोंच मारी तो अंदर से केवल रुई निकली। इससे किसकी भूख बुझी है? विषय-सुखों का परिणाम सारहीन ही है। अंत में, जब काल-ब्याल के मुख में पड़ गया, तब पछताने से क्या होगा ?
शब्दार्थ :- डहकायौ =ठगा गया। गीध्यौ = लालच में पड़ गया। कुरंग = मृग। जल देखि अवनि कौ = ग्रीष्म में धरती से उठती हुई गर्म हवा को जल समझ लिया, यही मृगतृष्णा है। सेमर =शाल्मलि वृक्ष। तूल =रूई। तांवरो =मूर्छा।चौंहटे =चौहटा,चौक।