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गीति - १ / अज्ञेय

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माँझी, मत हो अधिक अधीर।
साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर,
नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर,
किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर

किंकिणि-नूपुर शब्द लिये आता है मन्द समीर।
थोड़ी देर प्रतीक्षा कर लो साहस से, हे वीर-
छोड़ उन्हें क्या तटिनी-तट पर चल दोगे बेपीर?
माँझी, मत हो अधिक अधीर।

दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931