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बत्ती और शिखा / अज्ञेय
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मेरे हृदय-रक्त की लाली इस के तन में छायी है,
किन्तु मुझे तज दीप-शिखा के पर से प्रीति लगायी है।
इस पर मरते देख पतंगे नहीं चैन मैं पाती हूँ-
अपना भी परकीय हुआ यह देख जली मैं जाती हूँ।
दिल्ली जेल, नवम्बर, 1931