अपना गान / अज्ञेय
इसी में ऊषा का अनुराग इसी में भरी दिवस की श्रान्ति,
इसी में रवि के सान्ध्य मयूख इसी में रजनी की उद्भ्रान्ति;
आद्र्र-से तारों की कँपकँपी व्योमगंगा का शान्त प्रवाह,
इसी में मेघों की गर्जना इसी में तरलित विद्युद्ïदाह;
कुसुम का रस परिपूरित हृदय मधुप का लोलुपतामय स्पर्श,
इसी में काँटों का काठिन्य, इसी में स्फुट कलियों का हर्ष;
इसी में बिखरा स्वर्ण-पराग, इसी में सुरभित मन्द बतास,
ऊर्मि-माला का पागल नृत्य, ओस की बूँदों का उल्लास;
विरहिणी चकवी का क्रन्दन परभृता-भाषित कोयल तान,
इसी में अवहेला ही टीस इसी में प्रिय का प्रिय आह्वान;
भरी आँखों की करुणा-भीख रिक्त हाथों से अंजलि-दान,
पूर्ण में सूने की अनुभूति-शून्य में स्वप्नों का निर्माण;
इसी में तेरा क्रूर प्रहार, इसी में स्नेह-सुधा का दान-
कहूँ इस को जीवन-इतिहास या कहूँ केवल अपना गान?
दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931