भजु मन चरन संकट-हरन / सूरदास
राग बिहाग
भजु मन चरन संकट-हरन।
सनक, संकर ध्यान लावत, सहज असरन-सरन॥
सेस, सारद, कहैं नारद संत-चिन्तन चरन।
पद-पराग-प्रताप दुर्लभ, रमा के हित-करन॥
परसि गंगा भई पावन, तिहूं पुर-उद्धरन।
चित्त चेतन करत, अन्तसकरन-तारन-तरन॥
गये तरि ले नाम कैसे, संत हरिपुर-धरन।
प्रगट महिमा कहत बनति न गोपि-डर-आभरन॥
जासु सुचि मकरंद पीवत मिटति जिय की जरन।
सूर, प्रभु चरनारबिन्द तें नसै जन्म रु मरन॥
भावार्थ :- `परसि गंगा ...उद्धरन' पुराणों में कहा गया है कि जब वामन भगवान् ने राजा बलि से दान में प्राप्त पृथ्वी को अपने पैर से नापा, तब अंगूठे के लगने से हिमालय से गंगा की उत्पत्ति हुई। इसी से `गंगा-जल' को हरि-चरणोदक मानते हैं।
शब्दार्थ :- सनक = सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। सेस =शेषनाग। संत-चिंतत =संतों द्वारा जिनका चिंतन किया जाता है। रमा = लक्ष्मी। चेतन =चैतन्य
ज्ञान-युक्त। अंतसकरन =अंतःकरण। हरि-पुर-धरन =वैकुंठ में वास कराने वाले। मकरंद =पराग।रु =अरु, और।