शिशिर की राका-निशा / अज्ञेय
वंचना है चाँदनी सित,
झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार-
शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!
दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता,
वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार-
इधर-केवल झलमलाते चेतहर,
दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में
सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़!
पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार,
बाँस की टूटी हुई टट्टी, लटकती
एक खम्भे से फटी-सी ओढऩी की चिन्दियाँ दो-चार!
निकटतर-धँसती हुई छत, आड़ में निर्वेद,
मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में
तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा।
निकटतम-रीढ़ बंकिम किये, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा
वन्य बिलार- पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार!
गा गया सब राजकवि, फिर राजपथ पर खो गया।
गा गया चारण, शरण फिर शूर की आ कर, निरापद सो गया।
गा गया फिर भक्त ढुलमुल चाटुता से वासना को झलमला कर,
गा गया अन्तिम प्रहर में वेदना-प्रिय, अलस, तन्द्रिल,
कल्पना का लाड़ला कवि, निपट भावावेश से निर्वेद!
किन्तु अब-नि:स्तब्ध-संस्कृत लोचनों का
भाव-संकुल, व्यंजना का भीरु, फटा-सा, अश्लील-सा विस्फार।
झूठ वह आकाश का निरवधि गहन विस्तार-
वंचना है चाँदनी सित,
शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!
दिल्ली, 15 जनवरी, 1941