भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात होते, प्रात होते / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:34, 19 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय }} {{...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हिन्दी शब्दों के अर्थ उपलब्ध हैं। शब्द पर डबल क्लिक करें। अन्य शब्दों पर कार्य जारी है।

 प्रात होते
सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली-
जान कर मैं अनुगता हूँ-

उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ-
उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को।
प्रात होते

वही जो थके पंखों को समेटे-
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे-
चंचु की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाये-

सिहरता-सा, काँपता-सा,
नीड़ की-नीड़स्थ सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
निकट अपनों के-निकटतर भवितव्य की अपनी
प्रतिज्ञा के-
निकटतम इस विबुध सपनों की सखी के आ गया था-
आ गया था रात होते!

मेरठ, 21 फरवरी, 1941