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हिमंती बयार / अज्ञेय
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हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में,
दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में-
तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में!
(2)
सिहर-सिहर झरते पत्ते पतझार के,
तिर चले कहाँ पंखों पर चढ़े बयार के!
-ले अन्ध वेग नौका ज्यों बिन पतवार के!
जीवन है कच्चा सूत-रहूँ मैं ऊब-डूब सागर में तेरे प्यार के!
शिलङ्, 9 फरवरी, 1945