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रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 12

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‘‘यदि इसी भाँति सब लोग
मृत्यु के घाट उतरते जायेंगे,
कल प्रात कौन सेना लेकर
पाण्डव संगर में आयेंगे ?
है विपद् की घड़ी,
कर्ण का निर्भय, गाढ़, प्रहार रोक।
बेटा ! जैसे भी बने, पाण्डवी
सेना का संहार रोक।’’

फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत,
ज्यों उठे सिन्धु में प्रलय-ज्वार,
कूदा रण में त्यों महाघोर
गर्जन कर दानव किमाकार।
सत्य ही, असुर के आते ही
रण का वह क्रम टूटने लगा,
कौरवी अनी भयभीत हुई;
धीरज उसका छूटने लगा।

है कथा, दानवों के कर में
थे बहुत-बहुत साधन कठोर,
कुछ ऐसे भी, जिनपर, मनुष्य का
चल पाता था नहीं जोर।
उन अगम साधनों के मारे
कौरव सेना चिग्घार उठी,
ले नाम कर्ण का बार-बार,
व्याकुल कर हाहाकार उठी।

लेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत,
अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण,
मन-ही-मन था हो रहा स्वयं,
इस रण से कुछ विस्मित, विवर्ण।
बाणों से तिल-भर भी अबिद्ध,
था कहीं नहीं दानव का तन;
पर, हुआ जा रहा था वह पशु,
पल-पल कुछ और अधिक भीषण।
 
जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध,
हो सकी महादानव की गति,
सारी सेना को विकल देख,
बोला कर्ण से स्वयं कुरूपति,
‘‘क्या देख रहे हो सखे ! दस्यु
ऐसे क्या कभी मरेगा यह ?
दो घड़ी और जो देर हुई,
सबका संहार करेगा यह।

‘‘हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का,
अचिर किसी विधि त्राण करो।
अब नहीं अन्य गति; आँख मूँद,
एकघ्नी का सन्धान करो।
अरि का मस्तक है दूर, अभी
अपनों के शीश बचाओ तो,
जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,
उसमें से हमें छुड़ाओ तो।’’

सुन सहम उठा राधेय, मित्र की
ओर फेर निज चकित नयन,
झुक गया विवशता में कुरूपति का
अपराधी, कातर आनन।
मन-ही-मन बोला कर्ण, ‘‘पार्थ !
तू वय का बड़ा बली निकला,
या यह कि आज फिर एक बार,
मेरा ही भाग्य छली निकला।’’

रहता आया था मुदित कर्ण
जिसका अजेय सम्बल लेकर,
था किया प्राप्त जिसको उसने,
इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर,
जिसकी करालता में जय का,
विश्वास अभय हो पलता था,
केवल अर्जुन के लिए उसे,
राधेय जुगाये चलता था;