साथ / कुमार अनुपम
{
चाँद
तुम्हारी किरचें टूट टूटकर
बिखर रही हैं तारों की तरह
यह किस समुच्चय की तैयारी है
वह बावड़ी जिसके जल में
देखा था एक दिन हमने सपनों का अक्स
उस पर रात घिर आई स्थाई रंग लिए
रोज़ की ही तरह
हमारी खिलखिलाहट की चमक
गिरती रही चक्कर खाते हुए पत्ते की तरह उसी जल में
दरअस्ल
घरेलू आदतों से ऊब गई थी वह बदलना चाहती थी केंचुल
अपने समय में छूटती जाती साँस की-सी असमर्थता
से घबराना मेरा नियम बन गया था
अब हम
किसी मुक्ति की तलाश में भटकते संन्यासी थे
और एक दिन
उसने बदल दिया अपनी मोबाइल का वह रिंगटोन
जो मुझे प्रिय था
और रिबन बाँधना कर दिया शुरू जो उसे तो
कभी पसन्द नहीं था
मैं भी पहनने लगा चटख़ रंग के कपड़े जो आईने में
मुझ पर नहीं फबते रहे थे कभी
फिर भी
अचानक नहीं हुआ यह
कि
मैं किसी और के स्वप्न में रहने लगा हूँ
वह किसी और की आँखों में बस गई है
और हम
अपने बढ़ते हुए बच्चे के भविष्य में
अब भी साथ रहते रह रहे हैं ।