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हा कि मैं खो जा सकूँ / अज्ञेय
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हा, कि मैं खो जा सकूँ!
हा, कि उस के भाल पर अवतंस-पद मैं पा सकूँ-
हा, किस उस के हृदय पर एकाधिकार जमा सकूँ!
टूट कर उस के करों, चिर-ज्योति में सो जा सकूँ-
हा, कि उस के चरण छू कर आत्मभाव भुला सकूँ!
यदि न इतना भी लिखा हो भाग्य में, हे बंचने-
हाय! देना विपिन-प्रान्तर में कहीं बिखरा मुझे!
पूर्णता हूँ चाहता मैं, ठोकरों से भी मिले-
धूल बन कर ही किसी के व्योम भर में छा सकूँ!
मुलतान जेल, 11 दिसम्बर, 1933