फूला कहीं एक फूल / अज्ञेय
फूला कहीं एक फूल!
विटप के भाल पर,
दूर किसी एक स्निग्ध डाल पर,
एक फूल - खिला अनजाने में।
मलय-समीर उसे पा न सकी,
ग्रीष्म की भी गरिमा झुका न सकी
सुरभि को उस की छिपा न सकी
शिशिर की मृत्यु-धूल!
फूल था या आग थी जली जो अनजाने में!
जिस की लुनाई देख विटप झुलस गया-
सौरभ से जिस के समीरण उलझ गया-
भव निज गौरव को भूल गया,
सुमन के तन्तु की ही फाँसी से झूल गया!
ऐसे फिर जग की विभूतियों को छान कर,
एक तीखे घूँट ही मे पान कर
लाख-लाख प्राणियों के जीवन की गरिमा
- हाय, उस सुमन की छोटी-सी परिमा!-
मूर्छित हो कुसुम स्वयं ही वह चू पड़ा
जानने को जाने किस जीवन की महिमा!
वह तब था जब तुझे किया था मैं ने प्यार-
ओ सुकुमार- सौरभ-स्निग्ध - ओ सुकुमार!
तुझ को ही तो था वह उपहार!
तेरे प्रति निज प्रेम-भाव को, धारण कर मस्तक पर मैं,
जाने कब से खड़ा हुआ था आँखें आँसू से भर मैं!
प्रेम-फूल की रक्षा के हित भव-वैभव भी दे डाला-
आहुति निज जीवन की दे कर उस के सौरभ को पाला!
झुलसा खड़ा रहा मैं ले कर एक फूल की ही माला-
तेरे आँचल में टपका दी मैं ने निज जीवन-ज्वाला!
वह तब था जब तुझे किया था मैं ने प्यार-
ओ सुकुमार - सौरभ-स्निग्ध - ओ सुकुमार!
मुलतान जेल, 7 नवम्बर, 1933