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तुम गूजरी हो / अज्ञेय
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तुम गूजरी हो, मैं तुम्हारे हाथ की वंशी।
तुम्हारे श्वास की एक कम्पन से मैं अनिर्वचनीय माधुर्य-भरे संगीत में ध्वनित हो उठता हूँ।
ये गायें हमारे असंख्य जीवनों के असंख्य प्रणयों की स्मृतियाँ हैं।
वंशी की ध्वनि सुनते ही ये मानो किसी भूले हुए संगीत की झंकार सुन कर चौंक उठती हैं।
तुम और मैं मिल कर इस छोटे-से मण्डल को पूरा करते हैं। तुम्हारी प्रेरणा से मैं ध्वनित हो उठता हूँ, और उस ध्वनि की प्रेरणा से हमारी चिरन्तन प्रणय-कामनाएँ पूरीकरण में लीन हो जाती हैं।
यही हमारे प्रेम का छोटा-सा किन्तु सर्वत: सम्पूर्ण संसार है।
दिल्ली जेल, 27 नवम्बर, 1932