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मेरे मित्र, मेरे सखा / अज्ञेय

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मेरे मित्र, मेरे सखा, मेरे एक मात्र विपद्बन्धु- आत्माभिमान! देखो, मैं ने अपने अन्तर की नारकीय वेदना छिपा दी है, मेरे मुख पर हँसी की अम्लान रेखा स्थिर भाव से खिंची है। जब तक रात्रि के एकान्त में मैं अपनी शय्या पर पड़ कर अपना मुँह नहीं छिपा लूँगा, तक तक मेरे वदन पर शान्तिमय आनन्द के अतिरिक्त कोई भाव नहीं आ पाएगा। तुम्हारा धीमा किन्तु दृढ़ स्वर मेरे साहस को बढ़ाता हुआ कहता रहेगा- 'अभी नहीं, अभी नहीं...'
उसके बाद?

मरुभूमि में जब आँधी आती है, तब पशु अपना सिर रेत में छिपा लेते हैं। उत्तप्त रेत उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँचा पाती। मेरी शय्या के उस निविड एकान्त में कितनी आँधियाँ आ कर चली जायें, मेरी यह आत्मा उसी प्रकार अनाहत, अक्षत रह जाएगी।

भीगे हुए वस्त्र, या भर्रायी हुई आवाजक्या हैं? ये भी सामान्य जीवन की घटनाएँ हैं। इन में मेरा आहत अभिमान नहीं दीख पड़ेगा।

दिल्ली जेल, 2 जुलाई, 1932