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मैं हूँ खड़ा देखता / अज्ञेय

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मैं हूँ खड़ा देखता वह जो सारस-गति में चली जा रही,
मौन रात्रि में, नीरव गति से दीपों की माला के आगे।
क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे!

मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933