रात कटी / अज्ञेय
किसी तरह रात कटी
पौ फटी मायाविनी छायाओं की
काली नीरन्ध्र यवनिका हटी।
भोर की स्निग्ध बयार जगी,
तृण-बालाओं की मंगल रजत-कलसियों से
कुछ ओस बूँद झरे,
चिड़ियों ने किया रोर,
आकारों में फिर रंग भरे,
गन्धों के छिपे कोश बिखरे,
दूर की घंटा-ध्वनि वायु-मंडल को कँपाने लगी।
फेंके हुए अखबार की सरसराहट,
पड़ोस के चूल्हों के नये धुओं की चिनियाहटें,
ग्वाले के कमंडल की खड़कन,
कलों से बेचैन नये पानी का टपकना,
बच्चों के पैरों की डगमग आहटें,
आलने पर कल से उतारे हुए, मसले, फटे हुए
कुरते का फ़रियादी रूप,
दवा की अधूरी शीशी से सटे हुए
रुई के गाले का चौंधी आँख-सा झपकना,
पिंजरे में सहसा जागे पंछी-सी
अपने दिल की धड़कन :
परिचित के सहसा सब खुल गये द्वार :
उमड़ने लगा होने का आदि-अन्तहीन पारावार।
और यह सब इस कारणहीन, अप्रत्याशित,
अनधिकृत, विस्मयकर संयोग से कि
किसी दुःस्वप्न के चंगुल में अचानक रात में
साँस नहीं उलटी!
मोतीबाग, नयी दिल्ली, 1 नवम्बर, 1957 (भोर 5 बजे)