भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम जो सूर्य को जीवन देती हो / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:59, 30 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)
तुम जो सूर्य को जीवन देती हो, किन्तु उस की किरणों की आभा हर लेती हो, तुम कौन हो?
तुम्हारे बिना जीवन निरर्थक है; तुम्हारे बिना आनन्द का अस्तित्व नहीं है। किन्तु तुम्हीं हो जो प्रत्येक घटना में, प्रत्येक दिवस और क्षण में पीड़ा का सूत्र बुन देती हो; तुम्हीं हो जो कि कृतित्व का गौरव नष्ट कर देती हो! तुम्हीं हो जो कि भव की पहेली का अर्थ समझ कर हमें उस से वंचित कर रखती हो!
दिल्ली जेल, 13 जनवरी, 1933