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यह छिपाए छिपता नहीं / अज्ञेय

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यह छिपाये छिपता नहीं। मुझे सत्य कहना ही पड़ेगा, क्योंकि वह मेरे अन्तस्तल को भस्म कर के भी अदम्य अग्निशिखा की भाँति प्रकट होगा।
तुम्हारी दु:खित, अभिमान-भरी आँखों में मेरी आँखें वह तमिस्र संसार देख सकती हैं जो कि फूट निकलना चाहता है किन्तु निकल सकता नहीं।
तुम्हारे फिरे हुए मुख पर भी मैं पीड़ा की रेखाएँ अनुभव कर सकता हूँ-वे रेखाएँ जो कि मेरे अपने दु:खों की चेतना पर अपना चिह्न बिठा जाती हैं।
मैं भी क्रूर और अत्याचारी हूँ, मेरा हृदय भी वज्र की भाँति अनुभूतिहीन है। यही सत्य की नग्न वास्तविकता है।

19 जुलाई, 1933