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अपने प्रेम के उद्वेग में / अज्ञेय

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 अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है।
तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है।
तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उस से तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है- कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझ से अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है!
यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!

दिल्ली जेल, 16 मार्च, 1933