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नहीं, नियति को दोष क्यों दूँ / अज्ञेय

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नहीं, नियति को दोष क्यों दूँ? कारण कुछ और था।
मेरे ही हृदय में कुछ ऐसा कठोर, ऐसा अस्पृश्य, ऐसा प्रतारणापूर्ण विकर्षण था। वह कठोर था, किन्तु सूक्ष्म; निराकार था किन्तु अभेद्य...मेरे समीप आकर भी कोई मुझ में अभिन्न नहीं हो सकता था। उस अज्ञेय सत्त्व पर किसी का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था।
वह था क्या? अहंकार?
नहीं, वह था अपने बल का अदम्य अभिमान...कि मैं केवल पुरुष नहीं, केवल मानव नहीं, एक स्वतन्त्र और सक्रिय शक्ति हूँ।

दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932