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नहीं देखने को उसका मुख / अज्ञेय

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 नहीं देखने को उस का मुख किंचित् भी हो तुम उत्सुक,
फिर क्यों, प्रणयी, निकट जान कर उस को, हो उठते हो चंचल?
क्या केवल आँखों में संचित दृप्त व्यथा कर, होने प्रस्तुत;
जिस से वह न जानने पाये हृदय तुम्हारे का कोलाहल?
पूर्व-प्रेम अब सुला चुके हो, आकर्षण को भुला चुके हो,
फिर क्यों प्रणयी, विजन स्थलों में उस से मिलने को हो व्याकुल?
केवल उसे समीप देख कर मूक दर्प से आँख फेर कर,
बढ़े चले जाने को, ठुकराते चिर-परिचय को, ओ पागल?
प्रणयी! समझे होंगे जल के नीचे होगा ही सागर-तल-
कब जानोगे सागर-तल में ज्वलित सदा रहता बड़वानल?

दिल्ली जेल, 3 नवम्बर, 1932