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विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा / अज्ञेय

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 विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!

पुंजीभूते प्रणय-वेदने! आज विस्मृता हो जा!
क्या है प्रेम? घनीभूता इच्छाओं की ज्वाला है!
क्या है विरह? प्रेम की बुझती राख-भरा प्याला है!
तू? जाने किस-किस जीवन के विच्छेदों की पीड़ा-
नभ के कोने-कोने में छा बीज व्यथा का बो जा!
विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!

नाम प्रणय, पर अन्त:स्थल में फूट जगाने वाली!
एकाकिनि, पर जग-भर को उद्भ्रान्त नचानेवाली!
अरी, हृदय की तृषित हूक-उन्मत्त वासना-हाला!
क्यों उठती है सिहर-सिहर, आ! मम प्राणों में सो जा!
विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा!

पुंजीभूते प्रणय-वेदने! आज विस्मृता हो जा!

दिल्ली जेल, 4 जुलाई, 1932