भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूट गये सब कृत्रिम बन्धन / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:04, 3 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
नदी लाँघ कूलों की सीमा, अर्णव-ऊर्मि हुई, गति-भीमा;
अनुल्लंघ्य, यद्यपि अति-धीमा है तुझ को मेरा आवाहन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
छिन्न हुआ आचार-नियन्त्रण-कैसे बँधे प्रणय-आक्रन्दन?

दृष्टि-वशीकृत उर का स्पन्दन तुझे मानता है जीवन-धन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!
देय? स्वयं ही हूँ मैं दाता! फिर तेरा संकेत बुलाता!
बिना लुटाये कोई पाता? लो! देती हूँ अपना जीवन!
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!

1935