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शशि जब जा कर / अज्ञेय

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 शशि जब जा कर फिर आये-सरसी तब शून्य पड़ी थी!
सुख से रोमांचित होती कुमुदिनी कहीं न खड़ी थी।
शशि मन में हँस कर बोले-'मुग्धा से परिणति होगी?
सरसी में शीश छिपा कर मुझ से क्या मान करोगी?'

ओ दर्प-मूढ़ शशि! सोचो-मानिनि क्या मान छिपाती?
या उस में आवृत हो कर अधिकाधिक सम्मुख आती?
वह छिपी लिये यह इच्छा-भूला सुख पुन: जगा ले-
तेरा ही शीतल चंचल कर उस को ढूँढ़ निकाले!

1934