भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:32, 3 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)
प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता से मुग्ध हो कर दार्शनिक बोला, 'ईश्वर कैसा सर्वज्ञ है! दिवस के तुमुल और श्रम के बाद कितनी सुखद है यह सन्ध्याकालीन शान्ति!'
निश्चल और तरल वातावरण को चीरती हुई, दार्शनिक का ध्यान भंग करती हुई, न जाने कहाँ से आयी चक्रवाकी की करुण पुकार, 'प्रियतम, तुम कहाँ हो?'
1935