भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नित्य ही सन्ध्या को / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नित्य ही सन्ध्या को, कुमुदिनी स्वप्न में देखा करती है कि चन्द्रोदय हो गया है, और वह अभी सोयी पड़ी है, और चन्द्र आ कर अपने शुभ्र, कोमल, हिम-शीतल ज्योत्स्ना-करों से उसे उठा कर कहता है, 'प्रिये, अभी उठी नहीं?'
इस कल्पना से उस का अलसाया हुआ शरीर सिहर उठता है।
पर नित्य की सन्ध्या को, कुमुदिनी निराशा की विवशता से उत्पन्न आशा ले कर अपने हृदय की मधु-मंजूषा खोल कर, शशि के आने से पहले ही सत्कार-तत्पर हो कर खड़ी हो जाती है।
जो कल्पना स्वयं अपने विनाश का आधार होती है, वह वास्तविकता के निर्माण में सहायक नहीं होती!

1936