तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है?
काँप क्यों सहसा गया मेरा सतत विद्रोह का स्वर-
स्तब्ध अन्त:करण में रुक गया व्याकुल शब्द-निर्झर?
तुम्हीं हो क्या गान, जो अभिव्यंजना मुझ में अनुक्षण माँगता है?
खुल गया आक्षितिज नीलाकाश मेरी चेतना का,
छा गयी सम्मोहिनी-सी झिलमिलाती मुग्ध राका;
तुम्हीं हो क्या प्लवन वह आलोक का, जो सकल सीमा लाँघता है?
कहीं भीतर झर चले सब छद्म युग-युग की अपरिचिति के,
एक नूतन समन्वय में घुले सब आकार संसृति के;
तुम्हारा ही रूप धुँधला क्या सदा मानस-मुकुर में भासता है?
तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है?
कलकत्ता, 16 अक्टूबर, 1946