मिरगी पड़ी / अज्ञेय
अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है।
जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी
छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले-
कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम
सहसा यों मूर्छा उसे आती है।
पुतली की जोत बुझ जाती है।
कहाँ गयी चेतना?
अरे ये तो मिरगी का रोगी है!
मिरगी का दौरा है।
चेतना स्तिमित है।
किन्तु कहीं भी तो दीखती नहीं शिथिलता-
तनी नसें, कसी मुट्ठी, भिंचे दाँत, ऐंठी मांस-पेशियाँ-
वासना स्थगित होगी किन्तु झाग झर रहा मुँह से!
आज जाने किस हिंस्र डर ने
देश को बेख़बरी में डँस लिया!
संस्कृति की चेतना मुरझा गयी!
मिरगी का दौरा पड़ा, इच्छाशक्ति बुझ गयी!
जीवन हुआ है रुद्ध मूच्र्छना की कारा में-
गति है तो ऐंठन है, शोथ है,
मुक्ति-लब्ध राष्ट्र की जो देह होती-लोथ है-
ओठ खिंचे, भिंचे दाँतों में से पूय झाग लगे झरने!
सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया!
इलाहाबाद, 24 अक्टूबर, 1947