भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहती है पत्रिका / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:26, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=शरणार्थी / अज्ञेय }}...' के साथ नया पन्ना बनाया)
कहती है पत्रिका
चलेगा कैसे उन का देश?
मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत-
देखें अब कैसे उन का मैला ढुलता है!
'मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणगत।'
अगर वहीं के वे हो जाते
पंगु देश के सही, मगर होते आज़ाद नागरिक।
होते द्रोही!
यह क्या कम है यहाँ लौट कर
जनम-जनम तक जुगों-जुगों तक
मिले उन्हें अधिकार, एक स्वाधीन राष्ट्र का
मैला ढोवें?
इलाहाबाद, 7 नवम्बर, 1947