भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झरने के लिए / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:59, 6 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=बावरा अहेरी / अज्ञ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हवा से सिहरती हैं पत्तियाँ-किन्तु झरने के लिए।
उमँगती हैं छालियाँ
किसी दूर कछार पर खा कर पछाड़ें फिर बिखरने के लिए!
मरणधर्मा है सभी कुछ किन्तु फिर भी वहो, मीठी हवा,
जीवन की क्रियाओं को तुम्हीं तो तीव्र करती हो!
बहो, मीठी हवा, तुम बहती रहो,
पगली हवा, गति बढ़े जीवन की।
उभरने के लिए
जीवन-यदपि मरने के लिए-
सिहर झरने के लिए!
दिल्ली, 26 नवम्बर, 1950