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वेदना की कोर / अज्ञेय
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चेतना की नदी बहती जाए तेरी ओर
मौन तेरे ध्यान में मैं रहूँ आत्म-विभोर
अलग हूँ, पर विरह की धमनी तड़पती लिये स्पन्दित स्नेह
और मेरे प्यार में, ओ हृदय के आलोक मेरे
वेदना की कोर।
दिल्ली, अगस्त, 1951