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वर्षांत / अज्ञेय

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जिस दिन आया था वसन्त, उपवन में जागी हँसी अतर्कित,
हम सोच रहे थे,
ऋतुओं के अनुक्रम में पहली मधु है, शीत, शरद् या वर्षा
जिस दिन फूटा तारा-नभ की छाती मानो हुए कंटकित-
हमें यही चिन्ता थी
तारों की किरणें किस कारण से काँपती हैं?

जिस दिन जागा भाव, उलझते बैठे थे हम
जाँच रहे थे भावन, चिन्तन, कर्म-प्रेरणा के सम्बन्ध परस्पर।

आज-
आज, हाँ-
इस बालू के तट पर-(किस का तट, जो अन्तहीन फैला ही फैला
दीठ जहाँ तक भी जाती है!)-
बैठे हम अवसन्न-भाव से पूछ रहे हैं :
कहाँ गया वह ज्वार, हमारा जीवन, यह हिल्लोलित सागर कैसे,
कहाँ गया?

लो : मुट्ठी भर रेत उठाओ :
ठीक कह रहा हूँ मैं, हँसी नहीं है,
उसे उँगलियों में से बह जाने दो : बस।

यों।
इस यों में ही हैं सब जिज्ञासाओं के उत्तर।

फिर भी
जिज्ञासा का उत्तर अन्त नहीं है
जीवन का कौतूहल है अदम्य : जीवन की आशा
नहीं छोड़ सकती अन्वेषण;
यह जो इतना लम्बा है कछार बालू का
पार कहीं इस का होना ही होगा
सागर की ही यह जूठन है :
पहुँच सकें हम, बस इतना है।

साथ चले रह सकते हो क्या?
बोलो, साथी, है क्या साहस?

दिल्ली, 1 जनवरी, 1952