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तड़िदर्शन / अज्ञेय
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अरे किसे तुम पकड़ते हो? आकाश में असंख्य तारे हैं
दूर हैं, अज्ञात हैं, इसीलिए वे हमारे हैं।
बा की यहाँ?-क्यों व्यर्थ अकड़ते हो?
अरे, सब एक-से बेचारे हैं!
दिल्ली, सितम्बर, 1952