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मैं-मेरा, तू-तेरा / अज्ञेय
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जो मेरा है वह बार-बार मुखरित होता है
पर जो मैं हूँ उसे नहीं वाणी दे पाता।
जो तेरा है पल्लवित हुआ है रंग-रूप धर शतधा
पर जो तू है नहीं पकड़ में आता।
जो मैं हूँ वह एक पुंज है दुर्दम आकांक्षा का
पर उस के बल पर जो मेरा है मैं बार-बार देता हूँ।
जो तू है वह अनासक्ति पारमिता पर उसके वातायन से
जो तेरा है तू मुझ से, इस से, उस से, सब से फिर-फिर भर-भर
स्मित, निर्विकल्प ले लेता है।
पेरिस, 27 अक्टूबर, 1955