भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्याला : सतहें / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:53, 8 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभाम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह जगमग एक काँच का प्याला था
जिस में मद-भरमाये हम ने
भर रक्खा

तीखा भभके-खिंचा उजाला था।
कौंध उसी की से
वह फूट गया।
उस में जो रस था (मद?)

मिट्टी में रिस
वह धीरे-धीरे सूख गया-
पर रस की प्यास नहीं सूखी।

इस लिए हृदय में गाला हम ने एक कुआँ।
रस से लेंगे मन सींच!
काँच-प्याले के टुकड़े से लाये उलीच
जो, आँख मीच

हम पीने लगे-
विषैला कड़वा धुआँ!
यों बाद हृदय के
मन भी टूट गया।

जीवन! वह अब भी है।
विकिरित प्रकाश की किरणें
रंग-बिरंगी अनथक नाच रहीं कच-टुकड़े के
हर स्तर पर।
हम बार-बार गहरे उतरे-

कितना गहरे!-पर
जब-जब जो कुछ भी लाये
उस से बस
और सतह पर भीड़ बढ़ गयी।
सतहें-सतहें-

सब फेंक रही हैं लौट-लौट
वह कौंध जिसे हम भर न रख सके
प्याले में : छिछली उथली घनी चौंध से अन्ध
घूमते हैं हम अपने रचे हुए
मायावी उजियाले में।

गहरे में-कुछ इतना सूना जो
भिद कर भी लौटा ही देता है प्रकाश :
सतहों पर-टूटी चमकीली सतहों को बाँध-बाँध
उलझाने वाला सतहों का ही जटिल पाश!

सतहें-कच-टुकड़े :
यही जुटा पाये हम;
भीतर किरण रही जो
वह नीलाम चढ़ गयी!

मोती बाग, नयी दिल्ली, 1 अप्रैल, 1957