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बड़े शहर का एक साक्षात्कार / अज्ञेय

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 अधर में लटका हुआ
भारी ठोस कन्था।
कसैले भूरे कोहरे में
झिपती-दिपती
प्रकाश की अनगिन थिगलियाँ।
कि कोहरे को थर्राती हुई
एक भर्राती हुई आवाज़ बोली :
उस कन्थे की एक थिगली
मेरा घर है। जानते हो न?
उस में मेरी घरवाली है।
अगर मैं इतनी पिए हुए न होता
तो पहचान देता।
मानते हो न?
मैं ने कहना चाहा : किसे?
घर को, या घरवाली को?
पर कह न सका : चुपचाप ही
उस के भाग्य को सराहा
जो भुला देता है
और याद रखता है भूल गये होने को :
जो, यों, सस्ते में दोहरा सुख लेता है!
लेकिन यह अपने-आप ही
रह न सका; बोला :
पर पिये न होता
तो घर को पहचान देता
मगर अपने-आप को ही नहीं पहचान पाता।
मैं हूँ, मैं कौन हूँ, मैं मैं हूँ,
यही कैसे जान पाता?
फिर क्या होता?
तुम्हीं कहो, फिर क्या होता?
उसे रट लग जाएगी-
वह तो झोंक में है, मेरी शामत आएगी!-
यह सोच कर मैं ने कहा :
नहीं दोस्त! तुम सब पहचानते हो,
तब भी पहचानते;
भला अपना घर न जानते?
नशे की खुशी में उस ने दोहराया,
हाँ, सब पहचानता हूँ!
घर को, घरवाली को,
हर थिगली को-खूब जानता हूँ!
फिर एकाएक उसे क्रोध हो आया :
नहीं, तुम कुछ नहीं जानते!
उस कन्थे में सत्ताईस सौ थिगलियाँ हैं-
सत्ताईस सौ दरबे हैं-
हर थिगली में एक घर है, एक घरवाली है-
सत्ताईस सौ कुनबे हैं!-
कोई कैसे पहचान देगा?
तुम झूठे हो, तुम कभी नहीं पहचानते!
उन सत्ताईस सौ थिगलियों में कौन-सी
मेरा घर है,
कोई कैसे जान सकता?
मैं भी कैसे पहचान सकता?
होश में भी पहचान सकता तो पहले पीता क्यों?
बताओ, मैं पीता क्यों?
कोहरे को थर्राती हुई
भर्राती हुई आवाज़ :
अधर में लटका हुआ
एक सवाल
और एक कन्था
दोनों झिरझिरे, दिपते-झिपते।
क्या सवालों की थिगलियों के पीछे भी
जलती हुई बत्तियाँ हैं
या सिर्फ़ अधर से लटकन?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 29 अक्टूबर, 1969