भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाँ, दोस्त / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:55, 9 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=पहले मैं सन्नाटा ब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाँ, दोस्त,
तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी
और मैं ने सागर की लहर।
पहाड़ की पगडंडी :
सँकरी, पथरीली,
ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई :
मातबर और भरोसेदार
पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें
पड़ाव पर पहुँचा देगी।
सागर की लहर
विशाल, चिकनी,
सपाट
पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई,
बेभरोस और आवारा...
लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी
न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं
लौटा लाएगी
जहाँ से चले थे, सिवा इस के
कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा।
ठीक है, दोस्त
मैं ने लहर चुनी
तुम ने पगडंडी :
तुम
अपनी राह पर
सुख से तो हो?
जानते तो हो कि कहाँ हो?
मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी
जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त,
जियो, जियो, जियो...

जुलाई, 1970