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उद्धव-गोपी संवाद भाग ४ / सूरदास

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गोपी सुनहु हरि संदेस । कह्यौ पूरन ब्रह्म ध्यावहु, त्रिगुन मिथ्या भेष ॥ मैं कहौं सो सत्य मानहु, सगुन डारहु नाखि । पंच त्रय-गुन सकल देही, जगत ऐसौ भाषि ॥ ज्ञान बिनु नर-मुक्ति नाहीं, यह विषय संसार । रूप-रेख, न नाम जल थल, बरन अबरन सार ॥ मातु पितु कोउ नाहिं नारी, जगत मिथ्या लाइ । सूर सुख-दुख नहीं जाकैं, भजौ ताकौं जाइ ॥1॥

ऐसी बात कहौ जनि ऊधौ । कमलनैन की कानि करति हैं, आवत बचन न सूधौ ॥ बातनि ही उड़ि जाहिं और ज्यौं, त्यौं नाहीं हम काँची । मन, बच, कर्म सोधि एकै मत, नंद-नंदन रँग राँची ॥ सो कछु जतन करौ पालागौ, मिटै हियै की सूल । मुरलीधरहिं आनि दिखरावहु, ओढ़े पीत दुकूल ॥ इनहीं बातनि भए स्याम तनु , मिलवत हौ गढ़ि छोलि । सूर बचन सुनि रह्यौ ठगौसौ, बहुरि न आयौ बोलि ॥2॥

फिरि फिरि कहा बनावत बात । प्रात काल उठि खेलत ऊधौ, घर घर माखन खात ॥ जिनकी बात कहत तुम हमसौं, सो है हमसौं दूरि । ह्याँ हैं निकट जसोदा-नंदन, प्रान सजीवन मूरि ॥ बालक संग लिऐँ दधि चोरत, खात खवावत डोलत । सूर सीस नीचौ कत नावत, अब काहैं नहिं बोलत ॥3॥

फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ॥ बचन दुसह लागत अलि तेरे, ज्यौं पजरे पर लौन ॥ सृंगी, मुद्रा, भस्म, त्वचा-मृग, अरु अवराधन पौन । हम अबला अहीरि सठ मधुकर,धरि जानहिं कहि कौन ॥ यह मत जाइ तिनहिं तुम सिखवहु, जिनहिं आजु सब सोहत । सूरदास कहुँ सुनी न देखी, पोत सूतरी पोहत ॥4॥

ऊधौ हमहिं न जोग सिखैयै । जिहि उपदेश मिलै हरि हमकौं, सो ब्रत नेम बतैयै ॥ मुक्ति रहौ घर बैठि आपने,,निर्गुन सुनि दुख पैयै । जिहिं सिर केस कुसुम भरि गूँदे, कैसैं भस्म चढ़ैयै ॥ जानि जानि सब मगन भई हैं, आपुन आपु लखैयै । सूरदास-प्रभु सनहु नवौ निधि, बहुरि कि इहिं ब्रज अइयै ॥5॥

मधुकर स्याम हमारे ईस । तिनकौ ध्यान धरैं निसि बासर, औरहिं नवै न सीस ॥ जोगिनि जाइ जोग उपदेसहु, जिनके मन दस-बीस । एकै चित एकै वह मूरति, तिन चितवतिं दिन तीस ॥ काहें निरगुन ग्यान आपनौ, जित कित डारत खीस । सूरदास प्रभु नंदनंदन बिनु, हमरे को जगदीश ॥6॥

सतगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु, कैसैं कोउ पावै । उपदेसक हरि दूरि रहे तैं, क्यौं हमरे मन आवै ॥ जो हित कियौ तौ अधिक करहि किन, आपुन आनि सिखावैं । जोग बोझ तैं चलि न सकैं तौ, हमहीं क्यौं न बुलावैं ॥ जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन बन धावैं । आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवैं ॥ आपुन कहैं करैं कछु औरै, हम सबहिनि डहकावैं । सूरदास ऊधौ सौं स्यामा, अति संकेत जनावैं ॥7॥

ऊधौ मन नहिं हाथ हमारैं । रथ चढ़इ हरि संग गए लै, मथुरा जबहिं सिधारे ॥ नातरु कहा जोग हम छाँड़हि, अति रुचि कै तुम ल्याए । हम तौ झँखतिं स्याम की करनी मन लै जोग पठाए ॥ अजहूँ मन अपनौ हम पावैं, तुम तैं होइ तौ होइ । सूर सपथ हमैं कोटि तिहारी, कही करैंगी सोइ ॥8॥

ऊधौ मन न भए दस बीस । एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को आराधै ईस ॥ इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस । आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥ तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस । सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥9॥

इहिं उर माखन चोर गड़े । अब कैसैं निकसत सुनि ऊधौ, तिरछे ह्वै जु अड़े ॥ जदपि अहीर जसोदा-नंदन, कैसैं जात छँड़े । ह्वाँ जादौपति प्रभु कहियत हैं, हमैं न लगत बड़े ॥ को बसुदेव देवकी नंदन, को जानै को बूझै । सूर नंदनंदन के देखत, और न कोऊ सूझै ॥10॥

मन मैं रह्यौ नाहिं न ठौर । नंदनंदन अछत कैसैं, आनियै उर और ॥ चलत चितवत दिवस जागत, स्वप्न सोवत राति । हृदय तैं वह मदन मूरति, छिन न इत उत जाति ॥ कहत कथा अनेक ऊधौ, लोग लौभ दिखाइ । कह करौं मन प्रेम पूरन, घट न सिंधु समाइ ॥ स्याम गात सरोज आनन, ललित मदु मुख हास । सूर इनकैं दरस कारन, मरत लोचन प्यास ॥11॥

मधुकर स्याम हमारे चोर । मन हरि लियौ तनक चितवनि मैं, चपल नैन की कोर ॥ पकरे हुते हृदय उर अंतर, प्रेम प्रीति कैं जोर । गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन , दै गए हँसनि अँकोर ॥ चौकि परीं जागत निसि बीती, दूर मिल्यौ इक भौंर । दूरदास प्रभु सरबस लूट्यौ, नागर नवल-किसोर ॥12॥

सब दिन एकहिं से नहिं होते । तब अलि ससि सीरौ अब तातौ, बयौ बिरह जरि मो तैं । तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने । अब औरै गति भई कान्ह बिनु पल पूरन जुग माने । कहा मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहे घनेरे । अब कछु और सुहाइ सूर नहिं, सुमिरि स्याम गुनि केरे ॥13॥

सखी री स्याम सबै इक सार । मीठे बचन सुहाए बोलत, अंतर जारनहार । भंवर कुरंग काक अरु कोकिल, कपटनि की चटसार । कमलनैन मधुपुरी सिधारे, मिटि गयो मंगलचार । सुनहु सखी री दोष न काहू, जो बिधि लिख्यौ लिलार । यह करतूति उनहिं की नाहीं, पूरब बिबिध बिचार ॥ कारी घटा देखि बादर की, सोभा देति अपार । सूरदास सरिता सर पोषत, चातक करत पुकार ॥14॥

बिलग जनि मानौ ऊधौ कारे । वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥ तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥ कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥ मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे । तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥15॥

ऊधौ भली भई ब्रज आए । बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥ रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए । यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥ ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए । फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥ भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए । राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥16॥

जौ पै हिरदै माँझ हरी । तौ कहि इती अवज्ञा उनपै, कैसैं सही परी ॥ तब दावानल दहन न पायौ, अब इहिं बिरह जरी । उर तैं निकसि नंद नंदन हम, सीतल क्यौं न करी ॥ दिन प्रति नैन इंद्र जल बरषत, घटत न एक घरी । अति ही सीत भीत तन भींजत, गिरि अंचल न धरी ॥ कर-कंकन दरपन लै देखौ, इहिं अति अनख मरी । क्यौं अब जियहिं जोग सुनि सूरज, बिरहनि बिरह भरी ॥17॥

ऐसौ जोग न हम पै होइ । आँखि मूँदि कह पावैं ढूँढ़े, अँधरे ज्यौं टकराइ ॥ भसम लगावन कहत जु हमकौ, अंग कुंकमा घोइ । सुनि कै बचन तुम्हारे ऊधौ, नैना रावत रोइ ॥ कुंतल कुटिल मुकुट कुंडल छबि, रही जु चित मैं पोइ । सूरज प्रभु बिनु प्रान रहै नहिं, कोटि करौ किन कोइ ॥18॥

हमसौं उनसौं कौन सगाई । हम अहीर अबला ब्रजवासी , वै जदुपति जदुराई ॥ कहा भयौ जु भए जदुनंनदन, अब यह पदवी पाई । कुच न आवत घोष बसत की, तजि ब्रज गए पराई ॥ ऐसे भए उहाँ जादौपति, गए गोप बिसराई । सूरदास यह ब्रज कौ नातौ, भूलि गए बलभाई ॥19॥

तौ हम मानै बात तुम्हारी । अपनौ ब्रह्म दिखावहु ऊधौ, मुकुट पितांबर धारी ॥ भनिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरु गारी । भूत समान बतावत हमकैं, डारहु स्याम बिसारी ॥ जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं, ते विष क्यौं अधिकारी । सूरदास -प्रभु एक अँग पर, रीझि रहीं ब्रजनारी ॥20॥

ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु । बाँधौ गाँठि छूटि परिहै कहुँ, फिरि पाछैं पछिताहु ॥ ऐसौ बहुत अनूपम मधुकर, मरम न जानै और । ब्रज बनितनि के नहीं काम की, तुम्हरेई ठौर ॥ जो हित करि पठयौ मनमोहन, सो हम तुमकौ दीनौं ॥21॥

ऊधौ काहे कौ भक्त कहावत । जु पै जोग लिखि पठ्यौ हमकौ, तुमहुँ भस्म चढ़ावत ॥ श्रृंगी मुद्रा भस्म अधारी, हमहीं कहा सिखावत । कुबिजा अधिक स्याम की प्यारी, ताहिं नहीं पहिरावत ॥ यह तौ हमकौं तबहिं न सिखयौ, जब तैं गाइ चरावत । सूरदास प्रभु कौं कहियौ अब, लिखि-लिखि पठावत ॥22॥

(ऊधौ) ना हम बिरहिनि ना तुम दास । कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास ॥ बिरही मीन मरै जल बिछुरैं , छाँड़ि जियन की आस । दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरषत मरत पियास ॥ पंकज परम कमल मैं बिहरत, बिधि कियौ नीर निरास । राजिव रवि कौ दोष न मानत, ससि सौ सहज उदास ॥ प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली, प्रीतम कैं बनवास । सूर स्याम सौं दृढ़ ब्रत राख्यौ, मेटि जगत उपहास ॥23॥

ऊधौ लै चल लै चल । जहँ वै सुंदर स्याम बिहारी, हमकौ तहँ लै चल ॥ आवन-आवन कहि गए ऊधौ, करि गए हमसौं छल । हृदय की प्रीति स्याम जू जानत ,कितिक दूरि गोकुल ॥ आपुन जाइ मधुपुरी छाए, उहाँ रहे हिलि मिल । सूरदास स्वामी के बिछुरैं , नैनि नीर प्रबल ॥24॥

गुप्त मते की बात कहौं, जो कहौ न काहू आगैं। कै हम जानै कै हरि तुमहूँ, इतनी पावहिं माँगें ॥ एक बेर खेलत बृंदावन, कंटक चुभि गयौ पाइँ । कंटक सौं कंटक लै काढ़्यौ, अपनें हाथ सुभाइ ॥ एक दिवस बिहरत बन भीतर, मैं जु सुनाई भूख । पाके फल वै देखि मनोहर, चढ़े कृपा करि रूख ॥ ऐसी प्रीति हमारी उनकी, बसतें गोकुल बास । सूरदास प्रभु सब बिसराई, मधुबन कियौ निवास ॥25॥

ऊधौ जौ हरि हितू तुम्हारे । तौ तुम कहियौ जाइ कृपा करि, ए दुख सबै हमारे ॥ तन तरिवर उर स्वास पवन मैं, बिरग दवा अति जारे । नहिं सिरात नहिं जात छार ह्वै, सुलगि-सुलगि भए कारे ॥ जद्यपि प्रेम उमँगि जल सींचे, बरषि-बरषि घन हारे । जो सींचे इहिं भाँति जतन करि, तौ एतैं प्रतिपारे ॥ कीर कपोत कोकिला चातक, बधिक बियोग बिडारे । क्यौ जीवैं इहिं भाँति सूर-प्रभु, ब्रज के लोग बिचारे ॥26॥

बिलग हम मानैं ऊधौ काकौ । तरसत रहे बसुदेव देवकी, नहिं हित मातु पिता कौ ॥ काके मातु पिता कौ काकौ, दूध पियौ हरि जाकौ । नंद जसोदा लाड़ लड़ायौ, नाहिं भयौ हरि ताकौ ॥ कहियौ जाइ बनाइ बात यह, को हित है अबला कौ । सूरदास प्रभु प्रीति है कासौं, कुटिल मीत कुबिजा कौ ॥27॥

जीवन मुख देखे कौ नीकौ । दरस, परस दिन राति पाइयत, स्याम पियारे पी कौ ॥ सूनौ जोग कहा लै कीजै, जहाँ ज्यान है जी कौ । नैननि मूँदि मूँदि कह देखौ, बँधौ ज्ञान पोथी कौ ॥ आछे सुंदर स्याम हमारे, और जगत सब फीकौ । खाटी मही कहा रुचि मानै, सूर खवैया घी कौ ॥28॥

अपने सगुन गोपालहिं माई, इहिं बिधि काहैं देति । ऊधौ की इन मीठी बातनि, निर्गुन कैसें लेति ॥ धर्म, अर्थ कामना सुनावत, सब सुख मुक्ति समेति । काकी भूख गई मन लाड़ू, सो देखहु चित चेति ॥ जाकौ मोक्ष बिचारत बरनत, निगम कहत हैं नेति । सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति ॥29॥