भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पेड़ों की कतार के पार / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:07, 10 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=नदी की बाँक पर छाय...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पेड़ों के तनों की क़तार के पार
जहाँ धूप के चकत्ते हैं
वहाँ
तुम भी हो सकती थीं
या कि मैं सोच सकता था
कि तुम हो सकती हो
(वहाँ चमक जो है पीली-सुनहली
थरथराती!)
पर अब नहीं सोच सकता :
जानता हूँ :
वहाँ बस, शरद के
पियराते
पत्ते हैं।
बिनसर, 1978