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हम जिये / अज्ञेय
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लौटे तो लौट चले
पाँव-पाँव, मन को यहीं
इसी देहरी पर छोड़ चले
जीवन भर उड़ा किये
ले सपना-‘वह अपना है’,
उसी की छाँव तले
उस को ही सौंप दिये
पांख आज।
तड़पे।
फिर कौंध-सी में
जाना, यह लाज
भी उसी से है-
यह भी उसी को दी।
रह गयी चौंध एक
जिस में सब सिमट गया!
वही बस साथ लिये,
हार दाँव,
हम जैसा भी
जिये जिये!
नयी दिल्ली, 6 अप्रैल, 1980