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कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन) / अज्ञेय

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अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले-
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!-
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980