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फिर गुज़रा वह / अज्ञेय

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फिर गुज़रा वह
घिसटे पैरों से
गली की गच को सुख-माँजता
मलते हाथ रुकते
लटक जाती हैं बाँहें
उमस में खप जाती
मन-मसोस आहें
कंचे से न कुछ देखते, न दिखाते
आँखों के झरोखे ढोता है वह
न घटते भार के पछताहट के धोखे।