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साँझ के सारस / अज्ञेय

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घिर रही है साँझ
हो रहा अब समय
घर कर ले उदासी।
तौल अपने पंख, सारस दूर के
इस देश में तू है प्रवासी।
रात! तारे हों न हों
रवहीनता को सघनतर कर दे अँधेरा
तू अदीन, लिये हिये में
चित्र ज्योति-प्रकाश का
करना जहाँ तुझको सवेरा।
थिर गयी जो लहर, वह सो जाए
तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाए
मेघ, मरु, मारुत, मरुण अब आये जो सो आये।
कर नमन बीते दिवस को, धीर!
दे उसी को सौंप
यह अवसाद का लघु पल
निकल चल! सारस अकेले!