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गूँगे / अज्ञेय
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(निकिता स्तानेस्कू की स्मृति में)
सभी तो गूँगे हैं, पर एक
निकलता है जो अपने गूँगेपन को पहचानता है
उसका दर्द बोलता है और उस में
सब अपनी वाणी पहचानते हैं।
वह अपने दर्द पर हँसता है।
हम सहम जाते हैं कि कहीं वह हँसी भी
हमारी पहचानी हुई तो नहीं है?
पहचान से सहमना-
सहमने की पहचान से झिझकना
हमारा गूँगापन है
नहीं तो हम
उसकी हँसी से क्यों सहमते?