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देहरी पर / अज्ञेय
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मन्दिर तुम्हारा है
देवता हैं किस के?
प्रणति तुम्हारी है
फूल झरे किस के?
नहीं, नहीं, मैं झरा, मैं झुका,
मैं ही तो मन्दिर हूँ,
ओ देवता! तुम्हारा।
वहाँ, भीतर, पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहाँ देहरी के बाहर ही
सारा रीत गया।
नयी दिल्ली, 1 मई, 1968